अंतहीन सफ़र
स्पर्श धरा का किया था जब
प्रारम्भ हुई जीवन धारा
एक सफ़र ही था वो अंतहीन
नहीं अता पता मंजिल का पता
कभी दौड़े, कभी दौड़ाए गए
जाना था कहां, किसको है पता
गिरते उठते उन राहों पर
हर ठौर लगा मंजिल का पता
बदली जैसे जीवन की कला
बदला वैसे मंजिल का पता
जिसको जैसा माहौल मिला
उसने वैसा आगार चुना
थी तलब मुकाम एक अदद मिले
मिलते उसके लालच भी बढ़ी
इच्छाएं सदा अतृप्त रहीं
और राहे मंजिल भी बढ़ ली
असीमित रहीं इच्छा, आशा
हर प्राप्ति सदा अतृप्त रहीं
कुछ और मिले, की चाहत में
भटके भूले मंजिल का पता
जब छात्र रहे तब चाह रही
मिल जाए नौकरी एक अदद
कोई काम किया, व्यापारी बने
सोचा कि खुलें शाखाएं अनंत
कोई पद पाया तब इच्छा की
मिल जाए पदोन्नति तुरत फुरत
आने थी लगी जबसे लक्ष्मी
और बैंक में शून्य लगे बढ़ने
फिर चाह उठी कि ये और बढ़ें
क्या पता है शून्य ही अंत पता
पर प्रश्न अभी भी कायम है
आखिर क्या है अपनी मंजिल
है ठौर कहां इन सपनों का
है खुशी कहां मिलती ये बता
भौतिकवादी परिपाटी में
चल रही दुखों की अंधदौड़
‘ सब कुछ ले लूं ‘ की चाहत में
सब भूले खुद को ही दौड़ दौड़
फ़ुरसत है किसे कि एक पल रुके
अपने ऊपर फरमाए गौर
क्यों भाग रहा और किसके लिए
सब पाया फिर भी खुश क्यों नहीं
क्यों छोड़ा रिश्ते नातों को
मानवतावादी बातों को
संवेदनाशून्य था बना ही क्यों
सब भूला पर खुद को भी क्यों
आ लौट चलें एक बार पुनः
उन सुघर मनोरम राहों में
जहां रहते हैं तेरी माता
तेरा पिता और बचपन के सखा
पत्नी बच्चे ही नहीं केवल
तेरे समुचित परिवार का अंग
तू भी तो है किसी का बच्चा
उनका जीवन, उनका ही अंश
आदर्श आज जो देंगे हम
आने वाली संतानों को
प्रतिफल में वही मिलेगा भी
होंगे जब वृद्ध, निशक्त व रुग्ण
आओ फिर से शुरुआत करें
थोड़ा बदलें मंजिल का पता
कागज के टुकड़ों के बदले
हो मंजिल अपनों की मुस्कान
हों शून्य बैंक में उतने कि
कट जाए जीवन बिना रार
धन, बीमा, पूंजी, पेंशन का
कोई और ही है असली हकदार
कुछ समय निकालें खुद के लिए
सोचें, क्या खुशी का असली पता
वो पल जब सब खुश रहने लगें
मेरी मान, वही मंजिल का पता