गणतंत्र दिवस और मेरा देश
जब नींद खुली अल सुबह आज, तब देखा एक नया प्रभात
सारे चेहरे खुशहाल दिखे, तब सोच में पड़ गया क्या है आज
लड़ते, भिड़ते, रोते, गाते लोगों को मिली थी कैसी खुशी
सब मिलते गले एक दूजे के, था सुखद मगर रोचक सी घड़ी
पूछा मैंने एक साथी से कि, क्या स्पेशल है इस दिन
है जन्मदिवस किसी का या फिर, कोई नई खुशहाल घड़ी
फिर देखा नन्हे मुन्नों को, हाथों में तिरंगे लिए हुए
ठंडे मौसम में सज धज कर, विद्यालय को जाते हुए
आया फिर याद मुझे ततक्षण, अरे आज ही है गणतंत्र दिवस
70 साल हैं बीत गए, जब संविधान का हुआ सृजन
बदलाव बहुत आए तब से, जीवन स्तर और सोच में भी
पर भ्रमित हूं मैं ये सोच सोच कि, विकास है ये या पतन कहीं
सड़कें तो बनी पर भूले डगर, जाती थी जो सीधे दिल तक
सुविधाएं मिलीं पर भूल गए, वो गुण जिनमें थे सिद्ध हस्त
गर रोग बढ़े तो बने फिर भी, उसी दर से नए नए हॉस्पिटल
शिक्षा दर भी सुधरी व खुले, हर गली में थे विद्यालय भी
मौलिक अधिकार मिले सबको, संरक्षण को न्यायालय भी
सब स्वच्छ रहें और रोग रहित, लो बन गए शौचालय भी
सेना को सुसज्जित करने को, जो मिले नए नए अस्त्र शस्त्र
आतंक रहित करने को विश्व, बन गए अनेकों गठबंधन
पर्यावरण सुरक्षा के मुद्दे पर, ग्रीन ट्रिब्यूनल है ही मुखर
भारत की योग विधा का है, अब दुनिया में विश्वास प्रखर
सबको समान अधिकार मिले, आरक्षण है बस भारत में
पर बुद्धू अभी भी है लेबर, और तहसीलदार को लाभ मिले
सामाजिक सद्भाव बढ़ा पर, कुछ मुद्दे अभी भी कायम
मैं याद करूं बचपन के सखा, जो मिलते नहीं हैं कभी कहीं
अंतर तो हमेशा से ही रहा, भारत की अभिन्न परिपाटी में
पर अब जो दिखा, वो नहीं रहा था, देश की पावन माटी में
करते देखा था खून को ही, अपने ही खून का खून कहीं
रुपए दस की खातिर भोकें, छूरा दोस्त को दोस्त कहीं
जातिवाद की धारा में सब, भूल गए बचपन का प्रेम
गुल्ली डंडा और क्रिकेट मेट, मिलते नहीं अब आउट ऑफ गेट
अब रिश्ते सभी मोबाइल पर, बनते व निभाए जाते हैं
घंटों घंटों के चैट मेट, जब मिले तो बोल न पाते हैं
नहीं मिलता कोई जो संभाल सके, जीवन की विकट परिस्थिति में
नहीं पता किसी को है आखिर, पड़ोसी भी कौन सी स्थिति में
बिजली की रोशनी में रहकर भी, अंतर्मन का प्रकाश छिना
संवेदना शून्य हुए सब क्यों, आखिर हमने क्यों ये राह चुना
रह कर के देश में क्यों लगते, नारे हैं वतन की तबाही के
आदर्श की बात सभी करते, पर भ्रष्ट सोच अभी भी क्यों है
वसुधैव कुटुंबकम् के साधक, क्यों व्यक्तिवाद पर आ टपके
अपनी डफली अपना ही राग पर, देश का भी हित क्यों है बिके
जब तक मुद्दे ये तमाम नहीं, सुलझेंगे हर जन के भीतर
बेहतर है कि वे सोते ही रहें, निकलें न आज मेंढ़क बन कर
औकात नहीं गर समझ सको, तुम महत्व राष्ट्र के प्रतीकों का
मत ले आना बाजार से तुम, तिरंगा झंडा प्लास्टिक का
गर प्यार है दिल में देश और, जज़्बात की है न कसर कोई
थोड़ा झुकना और उठा लेना, गर सड़क पर मिले ध्वज कोई