सरकारी संपत्ति – आखिर किसकी (भाग – 2)
“अरे पता है, आज सरकार ने बोला है कि हर व्यक्ति के बैंक खाते में बिना काम किए ही पाँच हजार रुपए हर महीने जमा करा दिए जाएंगे। अब तो मौज ही हो गई न? बिना काम किए ही हर महीने घर बैठे पैसे मिल जाएंगे। राशन और रसोई गैस पहले से सब्सिडी पर उपलब्ध है। अब तो सारी चिंता ही खत्म।”
कितना अच्छा लगता है न, जब सरकार में बैठी पार्टी ऐसा ही कोई लोकलुभावन वादा या घोषणा करती है या किसी विपछी दल के चुनावी घोषणा पत्र में कुछ ऐसा ही उल्लेख हो? मुझे पता है कि हम लोगों में से अधिकतर लोगों के मन में उपरोक्त विचार अवश्य ही आते हैं।
असल में ये कुछ ऐसा ही मामला है जैसे कि हम लोग जब बाजार जाते हैं या किसी ई–कॉमर्स वेबसाइट पर सामान देख रहे होते हैं तो अक्सर हम सेल या डिस्काउंट का इंतजार करते हैं। कई बार हमें कोई मनपसंद वस्तु अच्छे दाम में मिल भी जाती है लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि हम गए तो होते हैं कुछ और खरीदने और उठा लाते है पूरी बाजार। स्पष्ट है कि उनमें से बहुत से सामान ऐसे भी होते हैं जिनकी हमें कोई जरुरत तो नहीं होती लेकिन डिस्काउंट देख कर वो हमारे कार्ट का हिस्सा बन जाती है। फिर जब हम घर पहुँच कर डिस्काउंट की खुमारी से बाहर निकलते हैं तब महसूस होता है कि हमने एक दिन की आवश्यक या अनावश्यक खरीददारी में पूरे महीने का बजट खर्च कर दिया है और महीने के बाकी दिनों के खर्च के लिए हमारे पास कुछ बचा ही नहीं है। अब समय होता है किसी ऐसे मित्र या व्यक्ति की तलाश का जो हमारे बाकी के खर्च को फाइनेंस कर सके।
अब उपभोक्तावादी संस्कृति का लाभ भला व्यापारियों तक ही क्यों सीमित रहेॽ इसका भरपूर लाभ हमारे राजनेता भी उठाते हैं। अक्सर इन लोकलुभावन वादों के केंद्र में गरीबों के उत्थान की मानसिकता कम और चुनावी लाभ का गुणा–गणित ज्यादा होता है। एक बार ऐसी कोई flagship योजना बनी और उसके बाद हम लोग सरकार के अगले कदम के इंतजार में जुट जाते हैं।
जैसा कि इस कड़ी के पहले भाग में मैंने स्पष्ट कर दिया था कि जनता ही सरकार की फाइनेंसर है और ऐसी किसी भी योजना को भी वही अपने बढ़े हुए करों और सुरसा के मुख जैसी बढ़ती हुई महंगाई के रुप में फाइनेंस करती है। समझने की बात है कि जितना बड़ा वादा, उतना ज्यादा खर्च और जितना ज्यादा खर्च, उतना ही ज्यादा कर या कर्ज। अब सीधी सी बात है कि बात चाहे कर की हो या कर्ज की, हानि–लाभ का गुणा–गणित तो फाइनेंसर को ही करना पड़ेगा। लेकिन विडंबना ये भी है कि इन मामलों में फाइनेंसर की गणित थोड़ी ढीली है। भले ही उसे 100 के बदले 210 खर्च करना पड़े लेकिन वो तो भाई बस कुछ छोटे मोटे gifts से ही संतुष्ट है।
तो मेरे प्यारे भाइयों और बहनों, बस इतनी सी बात समझने की है कि चुनाव wisely किया कीजिए, चाहे वो नेता हो या फिर आपकी अपनी खरीददारी। गलत चुना या free के चक्कर में भागे तो अंत में बजट आपका ही बिगड़ेगा। क्योंकि देश भी आपका ही है और जेब भी आपकी ही है। तो मेरी मानो और free से ज्यादा अपने बजट पर ध्यान दो। कहीं ऐसा न हो कि free का बटोरते बटोरते ऐसी हालत हो जाए कि आप अंत में कुछ खरीदने लायक ही न रहें।
इस श्रृंखला का पहला भाग आप नीचे दिए गए लिंक पर देख सकते हैं।
क्रमशः……………..
Aapne bdi hi saargarbhit tarike se rajnaituk manochhit Ko spast kar do. Dhanywad aur aapka ullekh saarahniya hai
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धन्यवाद तिवारी जी 😊
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