कड़वी बातों के पीछे का अपनापन
आज कल्लू बहुत उदास था। वैसे तो वो अक्सर ही किसी न किसी कारण से उदास रहने वाला व्यक्ति है किन्तु उसकी आज की उदासी कुछ ज्यादा ही गंभीर थी। कल्लू से तो आप पहले से परिचित हैं (पढ़ें काव्य श्रृंखला – 18)। सबके लिए हमेशा मजाक का केंद्र कल्लू आज वास्तव में एक गंभीर चिंतन में डूबा था।
हमेशा की तरह मैंने उससे इस बार भी उसके दुख का कारण पूछ लिया। वैसे तो कल्लू मुझे बहुत ज्यादा पसंद नहीं करता लेकिन जीवन की कठिन परिस्थिति में अक्सर ही सलाह लेने आ जाता है। आज भी कल्लू ने मुझे टालने का ही प्रयास किया। मेरे बार बार पूछने पर वह अचानक रोने लगा और कहने लगा कि उसके लिए अब जीवन किसी काम का नहीं रहा। कल्लू की ऐसी दशा देखकर मैं सोच में पड़ गया और उसे शांत मन से सारी बात बताने को कहा।
कल्लू के जीवन के पिछले अनुभवों के अतिरिक्त उसकी सबसे बड़ी समस्या उसके अपने लोगों द्वारा प्रतिदिन पड़ने वाली डांट या कड़वी बोली थी। कभी उसकी मां उसे देर तक सोने के लिए डांटती थीं तो बहन मोबाइल का अतिशय प्रयोग के लिए। कभी भाई पढ़ाई न करने पर डांटता था तो पिताजी घर का काम न करने के लिए। काम, पढ़ाई और शारीरिक श्रम से दूर भागने वाला और आराम पसंद कल्लू भला इन्हीं बातों के लिए किसी की डांट सुनना क्यों पसंद करे लेकिन परिवार के सदस्यों के प्रति उसके मन का प्यार और सम्मान उसे किसी भी प्रकार का प्रतिकार करने से रोक लेता था। आज कल्लू अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख सका क्योंकि आज की डांट उसको उस बात के लिए पड़ी थी जो उसने सिर्फ अपने भाई को चिढ़ाने के लिए ही कहा था। कल्लू को ऐसा लगने लगा था कि उसे समझने वाला कोई नहीं है या उसके अपने भी उसे समझ नहीं पा रहे हैं और यही बात उस अन्दर ही अन्दर खाए जा रही थी और आज अपने विकराल रूप में मेरे सामने उपस्थित थी।
ये बात सिर्फ एक कल्लू की नहीं है बल्कि ऐसे अनेकों “कल्लू” लगभग हर परिवार में मिल जाते हैं।
तकनीक प्रधान दौर में अपनों के पास बैठकर दो शब्द बात करने को कोई तैयार नहीं है।
महीनों घर से दूर रहकर कुछ दिन के लिए घर आने वाले लोग भी अपनी बाहर की दुनिया में ही जीते रहते हैं और जैसे आए थे वैसे ही चले भी जाते हैं जबकि वास्तव में वह काम से ब्रेक लेकर खुद को रिफ्रेश करने और अपनों के साथ खुशी के दो पल बिताने आए होते हैं।
ऑफिस से वापस लौटने के बाद घर पर इंतजार कर रहे परिवार के लोग जब उनके हक के समय को नहीं पाते तो अक्सर ही तनाव और कुंठा से ग्रसित हो जाते हैं।
फोन पर अक्सर “कैसे हो” के जवाब में “ठीक हूं” सुन लेने के बाद ये मान लिया जाता है कि सामने वाला व्यक्ति बिल्कुल मजे से है लेकिन कई बार वो शारीरिक रूप से तो ठीक होता है किन्तु मानसिक रूप से कहीं न कहीं संघर्ष कर रहा होता है।
कई बार परिवार में ऐसा माहौल उत्पन्न हो जाता है कि लोगों के पास एक दूसरे के सुख दुख सुनने और उन्हें उनके दृष्टिकोण से समझने का भी समय या धैर्य नहीं होता।
कई बार अपनों द्वारा किया जाने वाला अविश्वास और अतिप्रतिक्रियावादी व्यवहार के कारण भी लोग अपने दिल की बात या समस्या परिवार के सामने रखने से कतराने लगते हैं।
कभी खुद से पूछकर देखिए कि आपने आखिरी बार अपने घर के सदस्यों से आमने सामने बैठकर प्यार और सौहार्द्र भरे माहौल में कब बात किया था। यदि आप में से किसी को भी वो लम्हा बिना सोचे याद आ जाए तो कमेंट के माध्यम से जरूर सूचित कीजिएगा।
कमियां हम सबके अंदर उपस्थित होती हैं लेकिन उन कमियों को दूर करने के क्रम में कई बार कुछ ऐसे हालात उत्पन्न हो जाते हैं जो मनुष्य के व्यक्तित्व की एक नई परिभाषा लिख जाते हैं। वह भावनाओं को दबाते दबाते इतना बदल जाता है कि कई बार खुद को ही नहीं पहचान पाता। यह परिस्थिति निश्चित रूप से भयावह है और परिवार तथा समाज के लिए अत्यंत खतरनाक भी।
इसका दूसरा पक्ष यह भी है परिवार द्वारा पड़ने वाली डांट में से अधिकतर किसी कमी को सुधारने के लिए ही होती हैं और ऐसी डांट वास्तव में संबंधित व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण के लिए जरूरी होती है। ऐसे मामलों में यदि कोई “कल्लू” बनता है तो यह उस “कल्लू” की गलत प्रतिक्रिया है। किन्तु किसी एक या दो गलती को उसके व्यक्तित्व का दर्पण मान कर बार बार कोसने से आप उसे “कल्लू” बनने से कतई नहीं रोक सकेंगे।
सही कहें तो यहीं से परिवार और दोस्तों के अस्तित्व की असली भूमिका का आरंभ होना चाहिए। अगर कोई “अपना” अचानक या लगातार व्यवहार परिवर्तन से ग्रसित है तो उसे किसी डांट या तिरस्कार की नहीं बल्कि प्यार और सहयोग की आवश्यकता है।
मनुष्य को सबसे ज्यादा उम्मीद किसी अपने से ही होती है और जीवन की विकट परिस्थिति में वह सबसे पहले उसी की तरफ देखता है किन्तु ऐसे समय में प्यार और सहयोग के स्थान पर अपनों के द्वारा लगातार की जाने वाली कड़वी टिप्पणियां अक्सर उस व्यक्ति को अन्दर से खोखला बनाती जाती हैं और कालांतर में परस्पर रिश्तों पर गहरा और विपरीत असर डालती हैं।
परिवार सामाजिक जीवन की प्रथम पाठशाला है और साथ ही साथ जीवन की शुरुआत भी एक परिवार में ही होती है। आखिर वो कौन से कारण हैं जो व्यक्ति को परिवार के बाहर किसी की सहायता मांगने पर विवश कर देते हैं। ऐसे ही हालात या तो एक नए “कल्लू” को जन्म देते हैं या फिर पारिवारिक विखंडन की पटकथा लिख देते हैं।
क्रमशः
यह कड़ी जारी रहेगी।
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