वो मेट्रो वाली लड़की
दिल्ली के दिल की बात सुनो, दिल की रूठी आवाज सुनो
हर पल चलती इस दुनिया में, कुछ दबे हुए जज़्बात सुनो
वो हर दिन साथ में जाती है, पर साथ न कोई देता है
बस एक छुअन उसके तन की, हर मन की कुत्सित इच्छा है
कहते हैं एक्स रेे चार बार का, अंग को दुर्बल कर देता
वो हर दिन दुर्बल होती है, हर कदम नजर की मशीनों से
है सबल मगर बचपन से ही, खुद को अबला है मान चुकी
दिखती है बोल्ड मगर फिर भी, नजरें रखती है झुकी झुकी
वो बाहर जब भी जाती है, उम्मीदें और शक साथ चलें
परिवार की इज्जत का ठेका, उसके हर कदम के साथ चले
हो कोच खुला कोई लेकिन, वो भाग कर आगे जाती है
कोशिश है मिले महिला डिब्बा, कई बार ट्रेन छूट जाती है
पैरों के काले धागे का, उपयोग भले कोई भी रहे
पर बुरी नजर हर मिनट पड़े, उसकी खातिर तो जरूरी है
पीछे हो जगह बहुतायत पर, वो राह निकाल ना पाती है
गर भीड़ भरी हो डिब्बे में, वो बदनों में पिस जाती है
दुनिया की चलती गाड़ी में, वो सबको सहारा देती है
दुनिया में चलती गाड़ी में, नहीं खुद वो सहारा पाती है
कभी समय मिले तो नजर डालो, उसके प्रतिकारी भावों पर
फिर एक नजर गर डाल सके, डालो अपने ही विचारों पर
डर से कोई न जीत सका, एक प्रेम भरी दुनिया का राज
गर चाहत है वो दिल से मिले, जीने दो उसको हक के साथ
– Arun अर्पण
It seems that poem is based on true experience. Nice words. Keep the momentum going on.
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That’s true sir
Thanks a ton
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अति सुंदर श्रीमान जी
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सादर धन्यवाद 🙏
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Nice
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Thanks 😊
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