एक शाम – दिल्ली मेट्रो में
“यात्रीगण कृपया ध्यान दें, रिठाला की तरफ जाने वाली मेट्रो गाड़ी प्लेटफॉर्म नंबर 4 से होकर जाएगी। जो यात्री प्लेटफॉर्म नंबर 3 पर खड़ी मेट्रो के चलने का इंतजार कर रहे हैं वो कृपया प्लेटफॉर्म खाली कर दें।”
इतना सुनते ही हालात का अंदाजा तो पहले ही हो गया था। बची खुची कसर अगले 2 घंटे में पूरी हो गई।
कल शाम की ही तो बात है। ऑफिस से निकलकर जैसे ही कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन पर पहुंचा तो भारी भरकम भीड़ के बीच लाउडस्पीकर पर ये प्रसारण सुनने को मिला। आंखों के सामने खचाखच भरा हुआ प्लेटफॉर्म 4 था तो दूसरी तरफ बंद पड़ी रिठाला की तरफ जाने वाली मेट्रो। वो तो भला हो Chayoos की कुल्हड़ चाय का, जिसका सेवन मैंने अनायास ही प्लेटफॉर्म पर जाने से पहले कर लिया था। वरना दिन भर की थकान के बाद भीड़ का विकराल स्वरूप दिमाग की बत्ती गुल करने के लिए काफी था।
मोबाइल कैमरे के आविष्कार ने हर इंसान के अंदर छिपे फोटोग्राफर को सबके सामने लाकर खड़ा कर दिया है। ऐसे ही कुछ अतिउत्साह से भरपूर लोग उस भीड़ का वीडियो बनाने में लगे हुए थे। शायद उन्हें पैर जमीन पर टिकाने की जगह मिल गई थी।
आम तौर पर मैं 6 डिब्बों वाली मेट्रो का आखिरी डिब्बा पसंद करता हूं क्योंकि गंतव्य स्टेशन पर निकास का रास्ता उसके बिल्कुल सामने दिखता है। उस डिब्बे तक पहुंचने के लिए कल मुझे बिल्कुल भी प्रयास नहीं करना पड़ा और भीड़ ने 8-10 कदम की दूरी तो मुझे हवा में ही तय करवा दिया। खैर जैसे तैसे मेरी प्लेटफॉर्म पर लैंडिंग तो हो गई लेकिन पार्किंग के लिए जगह ही कहां थी? कोई दाहिने से धक्का मार कर 1 फीट खिसका देता था तो कोई बाएं से। तभी अचानक मैंने नोटिस किया कि यहां तो कुछ लोग पंक्ति में भी खड़े हैं। बस फिर क्या था, हम भी एक पंक्ति का हिस्सा बन गए।
उसी समय एक लड़की ने मुझसे पूछा कि रिठाला वाली मेट्रो किधर से आएगी। मैंने उसको बता दिया कि बाएं तरफ से आने वाली मेट्रो रिठाला जाती है। अगला सवाल था कि आपको कहां जाना है। समझ में तो मुझे भी नहीं आया कि भीड़ मुझे कहां ले जाने वाली है फिर भी मैंने उसको बता दिया। उसके बाद पता चला कि कोई ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आने वाली है। इतना सुनने के बाद कौन सी लाइन और कौन सा नियम। जब तक कुछ समझ में आता, मेरे सामने खड़ी वह लड़की आंखों से ओझल थी और लाइन में मेरे पीछे खड़े लोगों ने मुझे ट्रेन के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया था। गनीमत थी कि वो मुझे अपने साथ लेकर नहीं गए वरना “जाते थे जापान पहुंच गए चीन” वाली समस्या मेरे सामने खड़ी हो गई होती।
तीन ट्रेन गुजरने के बाद मेरे गंतव्य वाली ट्रेन के आने की आहट मिली। उससे पहले खुद को कैसे और किस हालत में भीड़ के प्रकोप से बचाकर रखा ये मुझे भी नहीं पता। थोड़ी ही देर में ट्रेन का दरवाजा आंखों के सामने था। लाइन में तीसरा नंबर मेरा था और सामने ट्रेन से उतरने के इंतजार में खड़े एक बुजुर्ग और एक लड़की। लड़की तो जैसे तैसे बाहर निकल गई लेकिन बेचारे बुजुर्ग भीड़ का शिकार होकर वापस अन्दर चले गए। अन्दर क्या चले गए, कोई उन्हें उठाकर अपने साथ अन्दर ले गया। मेरे सामने खड़ी दो महिलाओं सहित मुझे भी धक्का देकर अन्दर कर दिया गया। उसी दौरान मेरे सामने खड़ी महिला के जूते पर किसी का पांव पड़ा और वो लगभग गिरने की स्थिति में अा गई। एक बार गिरने का मतलब था – दोबारा कभी न उठ पाना। इस बार मैंने उसे अन्दर की तरफ खींचकर गिरने से रोका लेकिन वो अपना जूता भीड़ में छोड़ अाई जिसकी चिंता उसे तब तक बनी रही जब तक कि उसका जूता मिल नहीं गया। किस्मत से भीड़ ने उसका जूता भी अन्दर पहुंचा दिया था जिसे अंतिम बार मेरी नजरों ने देख लिया था। अब महिला परेशान कि एक जूते के साथ वो घर कैसे जाएगी और बार बार लोगों से अपना जूता ढूंढ़ने की अपील करने लगी। लोग भी क्या करते, किसी के पास इतनी जगह नहीं थी कि अपना पेट भी देख सके। जूता तो दूर की बात है। फिर मैंने बताया कि आपका जूता ट्रेन में ही है और आगे भीड़ कम होने पर मिल जाएगा। तब तक “आराम” से जितनी जगह मिली है उसमें खड़ी रहें।
हर विपरीत परिस्थिति कुछ न कुछ सिखाती जरूर है। उसी भीड़ में एक महिला ऐसी भी मिली जिसने पूरी बहादुरी से कानों में इयरफोन और हाथ में मोबाइल को बचाकर रखा और उस भीड़ में भी अपनी प्रिय मूवी देखती रही। उसके साहस, धैर्य और मूवी प्रेम को प्रणाम।
उस जगह पर अगर कोई चीज सबसे ज्यादा याद अा रही थी तो वो था अपना मोबाइल, जो रूम में आलमारी में पड़ा हुआ आराम कर रहा था। मोदीजी के डिजिटल इंडिया का समर्थन तो हम भी करते हैं लेकिन मोबाइल न होने पर कैब सेवा भी नहीं मिलती और भीड़ के साथ ही जाना पड़ता है, इसका अनुभव कल पहली बार हुआ। खैर, जैसे तैसे ट्रेन आगे बढ़ी और रास्ते में धीरे धीरे भीड़ भी कम होती गई। इसी बीच उस महिला का जूता भी मिल गया और वह अपने गंतव्य स्टेशन पर उतर गई। मेरा स्टेशन आते आते ट्रेन लगभग खाली हो गई और हमें चैन की सांस मिली तथा हम अपने आवास तक सकुशल पहुंचने में सफल रहे।
गनीमत है कि अति समृद्ध अवसंरचना और बंद डिब्बों की वजह से दिल्ली मेट्रो में इतनी भीड़ के बावजूद किसी के हताहत होने की खबर नहीं अाई। भारतीय रेल के यात्री तो इस स्थिति से हर दिन लड़ते हैं जिसके कारण कोई न कोई अपनी जान हर दिन गंवाता है। उसका जवाबदेह कौन है ?
कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन के अगले ही स्टेशन शास्त्री पार्क में मेट्रो का यार्ड है। ट्रेन के खराब हो जाने पर उसे वहां हटाने में आखिर इतनी देर क्यों की गई, ये अवश्य विचारणीय है।
ऐसा ही एक अनुभव मुझे वाराणसी रेलवे स्टेशन पर भी हुआ था लेकिन वो वृतांत फिर कभी।
तब तक के लिए, stay safe, stay blessed, have a nice time
प्रयोग की गई तस्वीर प्रतीकात्मक है और इंटरनेट से ली गई है। इसका कल की वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है।
Sundar
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धन्यवाद 😊
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🙏😊
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दिलचस्प मेट्रो यात्रा विवरण .
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धन्यवाद 😊
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मेट्रो यात्रा का अनुभव तो सबको हो ही गया है और उसमे होनेवाली भीड़ का भी वैसे आपका अनुभव वाकई दिलचस्प था।।।
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Thanks dear 😊
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Welcome Bhaiya 🤗🤗
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So sweet of you 😊
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Sir You gonna be a next chetan bhagat of india.. The way you narrate the story it’s like keep reading and reading..
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Thanks a lot Hem 😀
So sweet of you
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It’s wonderful nd may be someone is telling the truth…. Pandeyji
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Thanks a lot, Ma’am 😀
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