एक जिद ऐसी भी
जब कोई आप पर अपना हक समझने लगता है तो यह मायने नहीं रखता कि वो हक कोई मनुष्य जता रहा है या कोई अन्य प्राणी। वो तो बस प्रेम और अधिकार से परिपूर्ण एक अनुभूति होती है जो पहले से ही आश्वस्त करती है कि इस दर से निराशा हाथ नहीं लगेगी।
हमारे यहां पिछले तीन दिन से अनवरत वर्षा का दौर जारी है जिसके कारण जनजीवन अस्त व्यस्त हो चुका है। मानव जहां घरों में कैद हैं तो वहीं खुले में जीवन व्यतीत करने को मजबूर जंतु जगत एक ठौर की तलाश में दर दर की ठोकरें खा रहा है। इसी क्रम में कई बार इन्हें छत के छायाकारों का कोपभाजन भी बनना पड़ जाता है लेकिन क्या करें, जीवन है तो संघर्ष करना ही पड़ेगा।
आइए मिलते हैं ऐसे ही एक साथी से। कल दिन में दरवाजे पर आहट देने के बाद भी घर में प्रवेश पाने में असफल रहे इस साथी ने दरवाजे पर हठयोग प्रारंभ कर दिया और बारिश में भीगते और कांपते हुए अपनी दृष्टि दरवाजे पर जमा के रखा। बाहर निकलने पर जब हमने इन्हें धरना देते हुए देखा तो इनकी हालत देखकर घर में बुलाना चाहा लेकिन इन्होंने तब तक धरने का त्याग नहीं किया जब तक कि इनके लिए आश्रय के साथ साथ भोजन का भी इंतजाम नहीं कर लिया गया। काफी मान मन्नौवल के पश्चात घर में प्रवेश किए इन महानुभाव ने कल पूरा दिन घर की दालान में चैन से सोकर गुजारा। अंधेरा होने के बाद बाहर गया हुआ यह प्राणी जब देर रात तक वापस नहीं लौटा तो हम सबने भी दरवाजा बंद करके आराम करना मुनासिब समझा। साढ़े चार बजे के आसपास दरवाजे पर लगातार आहट और इनके पुकारने की आवाज मिलने लगी लेकिन जब दरवाजा खुला तो कोई नहीं मिला। शायद इन्होंने एक भरसक प्रयास के बाद सफलता के लिए सुबह का इंतजार करना ज्यादा सही समझा।
आज सुबह इनकी हठलीला पुनः प्रारंभ हो गई और एक बार फिर ये घर में प्रवेश पाने में सफल रहे हैं तथा आराम फरमा रहे हैं। बारिश का दौर अनवरत जारी है और ये जनाब अपने भीगे शरीर पर चिपकी बारिश की बूंदों को अपनी जीभ की गर्मी से सुखाने में व्यस्त हैं।

इन्होंने तो अपनी जिद और अधिकार के कारण अपने लिए एक ठौर तलाश लिया लेकिन सुबह एक समाचार और प्राप्त हुआ कि पास के कुएं पर एक गौ माता रात भर भींगती रहीं। उनको उनके आश्रयदाता ने बाढ़ की विभीषिका के कारण खुला छोड़ दिया था ताकि वो अपने लिए स्वयं आश्रय और भोजन की तलाश कर सकें। वह गौ माता इतनी खुद्दार हैं कि उनके करीब जाने पर वह किसी को कुछ नहीं बोलतीं लेकिन जब से बारिश शुरू हुई है तब से वह किसी के हाथ से कुछ भी ग्रहण नहीं करतीं। संभवतः उन्हें अपने साथियों और आश्रयदाता की चिंता स्वयं की सुरक्षा से अधिक सता रही है। मैं ऐसा इसलिए भी कह सकता हूं क्योंकि वहीं बगल में एक खाली और जनविहीन बरामदा है लेकिन उन्होंने वहां आश्रय लेना उचित नहीं समझा।
इनके जैसे न जाने कितने प्राणी ऐसे किसी आश्रय की अपेक्षा में दर दर भटकते हैं लेकिन अक्सर उन्हें आश्रय की बजाय मार और दुत्कार ही प्राप्त होती है। प्रतिकूल मौसम में इनको कुछ पल की खुशी देने में आखिर हर्ज ही क्या है? कई बार इनकी संवेदना देखकर मन सोचने पर मजबूर हो जाता है कि इनके भावों के सामने आधुनिक मानव भावनात्मक स्तर पर कितना तुच्छ होता जा रहा है।
सीखने की कला का वरदान पाया हुआ मानव हर क्षण और हर प्राणी से कुछ न कुछ सीखता है। क्यों न कुछ संवेदनाएं इनसे भी सीख ली जाएं?
© अरुण अर्पण
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