अध्याय – 1 / श्लोक – 27 से 30
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्। कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।।27।। अर्जुन उवाच दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्। सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।।28।। वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते। गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्वच्कैव परिदह्यते।।29।। न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः। निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।।30।।
अनुवाद –
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – जब अर्जुन ने वहां उपस्थित मित्रों और संबंधियों को देखा तो उनका मन करुणा से भर उठा और उन्होंने कृष्ण से कहा – हे कृष्णǃ युद्ध की आकांक्षा से यहां उपस्थित इन मित्रों और सगे संबंधियों को देखकर मेरे अंग कांप रहे हैं और मेरा मुंह सूखा जा रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरे गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से छूटता जा रहा है और मेरी त्वचा जल रही है। मैं यहां अब और अधिक देर तक खड़े रहने में असमर्थ हूं। मेरा स्वयं पर से नियंत्रण छूटता जा रहा है और मेरा सिर घूम रहा है। मुझे तो यहां सिर्फ अमंगल के ही लक्षण दिखाई दे रहे हैं।
वैसे तो अर्जुन ने अपने जीवन काल में अनेकों युद्धों में भाग लिया और विजय प्राप्त किया था किंतु महाभारत का युद्ध एक मामले में उन सभी युद्धों से अलग एवं विशिष्ट था। इस युद्ध में लड़ना भी अपनों के लिए और अपनों के ही विरुद्ध था। देखा जाए ताे कमोबेश यही स्थिति तो दुर्योधन और कौरवों के साथ भी थी किंतु वास्तविक अंतर तो संस्कारों का था। एक तरफ अर्थ और राज्य प्रधान था तो दूसरी तरफ अधिकारों और सम्मान की लड़ाई। इस युद्ध में विजयी पक्ष भी पराजित ही होना था क्योंकि इस विजय का मूल्य अपने सगे संबंधियों एवं मित्रजनों के बलिदान से चुकाया जाना था। जब बात अपनों के विरुद्ध निर्णय लेने की आती है तो बड़ा से बड़ा योद्धा भी विचलित हो उठता है और कोई भी कदम आगे बढ़ाने से पहले कई बार सोचता है। महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सामने कोई भाई था तो कोई दादा, कोई मित्र था तो कोई सगा संबंधी, कोई आचार्य था तो कोई प्रिय व्यक्ति। इन सबके साथ–साथ इस युद्ध में अनगिनत रुप से बलि चढ़ने जा रहे सामान्य सैनिकों एवं उनके परिवारों की चिंता भी अर्जुन के हृदय को विदीर्ण करती जा रही थी। महान योद्धा होने के साथ – साथ अर्जुन का यह भावपूर्ण पक्ष भी महाभारत के युद्ध की एक बड़ी घटना थी।
चर्चा जारी रहेगी
तब तक के लिए
जय श्रीकृष्ण
– Arun अर्पण
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत I
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम II
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम I
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे II
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:I
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन II
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः:I
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: II
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥
आप इस श्रृंखला की पिछले भागों को नीचे दिए गए लिंक द्वारा भी पढ़ सकते हैं–
गीता माणिक्य
गीता माणिक्य – 1
गीता माणिक्य – 2
गीता माणिक्य – 3
गीता माणिक्य – 4
गीता माणिक्य – 5
गीता माणिक्य – 6
गीता माणिक्य – 7
गीता माणिक्य – 8
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Albela Darpan
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