ढलते सूरज की अधूरी शाम और चिड़ियों से भरा खुला आसमान ,अपने साइकिल के हैंडल को हाथ मे थामे चुपचाप खड़ी यादों की दुनिया मे गुम कहीं ,जैसे कुछ वो सोच रही। ये चिड़िया भी कितनी खुश नसीब होती हैं जहाँ लड़कियाँ बड़े होने पर अपने ही घर की चार दिवारीयों में कैद कर दी जाती हैं , वहीं ये कितने इत्मिनान से सारी दुनिया की सैर कर रही। मेरी साइकिल जिसका दाहिना ब्रेक जो गिराज मे रखने की वजह से कुछ टूट सा गया था और वक्त के साथ जंग भी जिसमें अपनी जगह बनाने लगा था। इक मात्र ब्रेक के वजह से मेरी पूरी साइकिल का ज़रा ज़रा अब चलने की स्थिति मे नही रहा था। वो बढ़ती तो आगे पर चल नही पाती। जो कभी दौरना जानती थी ,मानों हवा से बाते करती हो ,उड़ती चिड़ियों संग उड़ती हो। पर अब जैसे बार बार मुझसे कह रही हो – मैं टूट गयी हूँ ,तुमसे दूर हो कर ,मै कुछ बिखर गयी हूँ। तुम चलालो इस काबिल नही रही। साइकिल को इस हाल मे देख मुझे जैसे लगा ,ये साइकिल- मुझे मेरा ही हाल बता रही हो ,मेरी ही दास्तान सुना रही हो। मेरी जिंदगी भी कुछ मेरी टूटी साइकिल सी हो गई है ,जो बढ़ती तो है पर चलती नही। जिसके पास पंख तो है ,पर जैसे उड़ना भुल गई हो। जिस प्रकार एक टूटे ब्रेक के साथ साइकिल चल नही सकती ,उसी प्रकार ये जिंदगी का भी पहिया -टूटे हुए दिल के साथ कहीं थम सा गया है। जिसमे वक्त तो बितता है पर जिन्दगी की कहानी हमेशा के लिए रुक सी गई हो। सोचती हूँ कि क्या मैं फिर इस कैद से बाहर निकल भी पाऊँगी ,खुले आसमान मे चिड़ियों की भांति उड़ भी पाऊँगी ,इस साइकिल के साथ दूनिया की रेस को जीत पाऊँगी ,क्या मै सब भुला कर आगे बढ़ भी पाऊँगी। ख्यालों की दुनिया मे अपने सवालों के जवाब ढूंढ ही रही थी ,कि एक अवाज मेरे कानों से आकर टकराई – चलो हम लेट हो रहे , इसे रख दो और अभी मेरे साथ चलचलो। मै उसे गिराज मे रख कर अपने सवालों की दूनिया से बाहर निकल कर उसके साथ चल पड़ी ।