धरती और प्रकृति के प्रेम को ऊँगली से कैसे नापू?
इतने कम शब्दों में माँ तुम पर कविता कैसे आँकू?
सुबह की प्रार्थना से लेकर,शाम की नमाज़ तक
दुआओं में शामिल है हम ,तेरी आखिरी सांस तक..
प्रेम की इस मूरत की वंदना,कलम से कैसे करूँ?
इतने कम शब्दों में माँ की अराधना मैं कैसे करूँ?
माँ अपने आंगन में नन्ही कलियाँ खिलाती है
नेह की छांव धर, पौधे को धूप से बचाती है..
ममता की क्षीर से उनकी अनंत क्षुधा मिटाती है
इक टक उनको निहार कर हर ग़म भूल जाती है
हमारे खातिर दुनिया की आंधियों से टकराती है
आँचल में ढक कर हमें हर विपत्ति से बचाती है
तिल तिल रोज़ हमारे खातिर वो जलती जाती है
हमें दे के सारे उजाले,वो अपने सपने बुझाती है..
समर्पण की ऐसी सूरत का बखान मैं कैसे करूँ?
इतने कम शब्दों में माँ पर आख्यान कैसे करूँ?
इस भीड़ भरी दुनिया में हमें राह चलना सिखाती है
कठिन डगर में अदृश्य होकर साथ हमारे चलती है
परिंदो के झुंड में ऊँची उड़ान भरना सिखाती है
हौसलो के पंख देके हमें, दूर तक साथ उड़ाती है
समुद्र की अतल गहराईयों में हमें उतरना दिखाती है
हज़ार सिपियों से हमें सच्चे मोती चुनना सिखाती है
थक हार जाने पर उठकर चलना है ऐसा कहती है
बक्ष चिर चट्टानों का ,नदी सा गुज़रना सिखाती है
रात भर जागकर चाँद सितारों की कहानियां सुनाती है
ज़िन्दगी के छूटे हिस्सों को वो फिर से यूँ जी जाती है…
माँ,लिखते लिखते अब मेरी कलम थक चुकी है
मगर तेरी दास्तान लिखना अब भी कुछ बाकी है
मेरी इस छोटी सी कोशिश को तू स्वीकार कर
मेरी कलम को अपनी आशीष से गुलज़ार कर।