ये चंचल मन जब भटके है,
तेरे अधरों पर अटके है..
जुल्फों को तूने क्या खोल दिया,
मन रतिपति का डोल गया,
तेरी जुल्फों के जंगल में,
हम आठों पहर को भटके हैं..
झुमके से गालों तक चला गया,
फिर अधरों के भंवर में उलझ गया,
काले नाग को ये मोल दिया,
और हम बेमोल से भटके हैं..
कल सांझ ढले इक खेल हुआ,
नैनों से तेरा मेल हुआ,
अब भोर हुई पर अक्स तेरा,
आंखों में हर पल खटके है..
कांधे सर धर जुल्फें खोल गया,
कल तो मेरे संग बिखर गया,
अब भोर हुई पर माधव मन,
अब तक उस खेल में है अटके..
तेरी जुल्फों के लटके झटके,
नाग सा बन जो तुझे हैं लिपटे,
वो कैसा मन जो इनमें ना भटके,
वो कैसा तन जो इनमें ना अटके..