
वक्र भृकुटी उसकी भुजा सी अद्वितीय है कोटिं विशेषों में।
ललाट है सूर्य सा तेजमयी पलकें अमूल्य आभूषण हैं,
खंजन नयनों की मदिरा से अब संचित मेरा कण-कण है।
इस अदम्य अमावस का कारण उसके नयनों का काजल है,
सम्मुख ऐसे वशीकरण के इच्छाशक्ति मेरी अब निर्बल है।
रजनीगंधा कुसुम के सदृश सुगंध से उसकी देह भरी,
मुग्ध करती है मृगनयनी चितवन से अपनी स्नेह भरी।
मोहक श्रृंगार की उत्तम ज्वाला त्वरित वेग से उत्कृष्ट हुई,
सानिध्य में उसकी श्वासों के मति भी अब भ्रष्ट हुई।
अमृत की सरिता बहती हैं सुकोमल से उसके तन पर,
अत्यल्प वस्त्र आच्छादित हैं जैसे भुजंग प्रशस्त हो चंदन पर।
अभिलाषा से उसके स्पर्श की मैं कर सकता हूं संग्राम नहीं,
वक्षों में उसके स्पंदन है हृदय मेरा अब निष्काम नहीं।
सौंदर्य स्वामिनी अप्सरा की मैं वंदना गुणगान करूं,
भ्रमर बनकर रूप के उपवन में उसके यौवन का रसपान करूँ।
जितनी प्रशंसा की जाए कम है सौंदर्य का अनूठा संगम,,, कल्पना में प्रकट,,,मन प्रसन्न हुआ,,, और उत्कृष्ट हिंदी से शोभित,,,
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दिल से शुक्रिया आपका 🙏🏻🙏🏻
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