ज़रूरी नहीं होगा कि मैं..
तुमसे प्रेम का स्वीकार्य भाव ही रखूँ..
जब मैं चलते – चलते हर एक..
छोटे बड़े मंदिर के सामने खड़े हो कर..
आँखें बंद करूँ, होठों से कुछ बुदबुदाऊँ..
कभी बेवजह ही तुम्हारे मस्तक पर..
चंदन का तिलक लगाऊँ..
या फ़िर तुम्हें तुलसी में दीप जलाने की..
महिमा और ज़रूरत समझाऊँ..
या अचानक कभी मैं तुम्हारी नज़र..
अपनी ही नज़र से उतार आऊँ..
तो भी तुम समझ लेना कि..
ये मेरे हिस्से का प्रेम है..
जिसे मैं टुकड़ों – टुकड़ों में खर्च कर रही हूँ..
तुमसे कोई वचन नहीं ले रही हूँ..
मग़र तुम्हें अपने हिस्से के सारे के सारे..
वचन मंगल सुमन से दे रही हूँ..
तुम समझ लेना कि मैं..
जीवन भर वाली तावीज़ तुम्हारी बन गई हूँ..
बोलूंँगी कुछ भी नहीं मग़र अपनी भागीरथी..
तुम्हारी गंगा में ही भिगो रही हूँ..
मैं अपने प्रेम का संगम काशी-काबा की तरह
साँसों के कण कण में कर रही हूँ..
मैं तुम्हारे प्रेम अमृत में अपनी रक्षा सूत्र के..
सारे मनके पंचामृत से भिगो रही हूँ..
मैं अपने परवाह के धागों से तुम्हारे.. सौभाग्य के कलावे गठबंधन से पिरो रही हूँ..
मैं तुमसे कुछ कहे बिना भी…
तुम्हारे प्रेम की ज्वाला में..
अपने निज भावों की समिधा के साथ..
होम हो रही हूँ..
मैं तुम्हें प्रेम के ये मनके सितारों की तरह..
सौंप कर पूरा व्योम हो रही हूँ..
Nice.
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TQ 😊
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