काश के मैं माटी बन जाऊं,
चाक के ऊपर बिछ जाऊं,,
इतना गीला कर दूं खुद को,
हर आकार में ढल जाऊं…
माटी को में देह लिखूं,
सर्वस्व समर्पण है बिछना,,
तृष्णा से ये गीलापन है,
आकार में ढलना प्रणय मेरा…
मैं प्रणय रूप गढ़ने को प्रियतम,
गीली होकर के बिछ जाऊं,,
जैसे कुम्हार के चाक पे माटी,
मैं माटी बनके रिस जाऊं…
तू कुम्हार की नाजुकता लिए,
माटी को दे आधार कोई,
हौले हौले हौले प्रियतम,
गीली माटी को दे आकार कोई…
जब लगे तुझे मैं सूख रही,
तू अपनी आंखों से पानी दे,,
जब सूखेपन पे हो दरार कोई,
होठों से तू गीलापन दे…
हौले हौले हौले प्रियतम,मुझको दे आधार कोई,
बिखरा बिखरा प्रणय मेरा,बर्तन सा दे आकार कोई,,
जैसे मटका शीतल जल का,भान लिए इतराता है,
मैं भी प्रियतम इतरा पाऊं,ऐसा दे आकार कोई…!!