मानस मन ये,हर पल चलता,
मृगतृष्णा सा, दर दर फिरता..
भोर भयै मन,सपने बुनते,
घर से अपने,पग पग चलता,,
आगे बढ़ता,राह पे चलता,
आधा रास्ता,हारकर के गिरता,,
फिर वो संभलता,फिर वो चलता,
फिर से गिरता,फिर से उठता,,
जब जब रास्ता,मुश्किल होता,
फूटी किस्मत,रोना रोता,,
कभी मचलता,कभी संभलता,
मानस मन ये,हर पल चलता…
मृगतृष्णा सा,हर पल चलता,
जंगल जंगल,भटका फिरता,,
जीवन का सुख,अपने मन में,
पर बेचारा,मन से दूर को चलता,,
फैली खुशबू,केसर में है,
केसर पाने,दर दर फिरता,,
क्यों ना समझता,ये बेचारा,
केसर अपनी,नाभी में ठहरता,,
कितना आकुल,कितना व्याकुल,
मानस मन ये,दर दर फिरता..
जीवन उत्सव,कभी दीप जलाता,
शापित जीवन,कभी राख रमाता,,
मधु का सेवन,करने को मचलता,
और अगले पल,विष पीने को तड़पता,,
कभी बनाता,खुद को रमता जोगी,
कभी मेनका,सम्मुख गिरता,,
देख दुर्दशा,तेरे मन की,
मेरा मन हाय,कितना रोता,,
मृगतृष्णा सा,दर दर फिरता,
मानस मन ये,हर पल चलता…!!